शायद जगह नसीब हो उस गुल के हार में
मैं फूल बन के आऊँगा अब की बहार में
गुंधवा के दिल को लाए हैं फूलों के हार में
ये हार उन को नज़्र करेंगे बहार में
मैं दिल की क़द्र क्यूँ न करूँ हिज्र-ए-यार में
उन की सी शोख़ियाँ हैं इसी बे-क़रार में
*हिज्र-ए-यार=जुदाई
तन्हा मिरे सताने को रह जाए क्यूँ ज़मीं
ऐ आसमान तू भी उतर आ मज़ार में
ऐ दर्द दिल को छेड़ के फिर बार बार छेड़
है छेड़ का मज़ा ख़लिश-ए-बार-बार में
*ख़लिश=चुभन
क्या जाने रहमतों ने लिया किस तरह हिसाब
दो चार भी गुनाह न निकले शुमार में
*रहमत=ईश्वर की कृपा
'सीमाब' बे-तड़प सी तड़प हिज्र-ए-यार में
क्या बिजलियाँ भरी हैं दिल-ए-बे-क़रार में
~ सीमाब अकबराबादी
Jul 13, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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