जब दर्द के नाते टूट गए
जब मंज़र मंज़र फैले हुए
अन-देखे लम्बे हाथों ने
सब अहद पुराने लूट लिए
माज़ी के ख़ज़ाने लूट लिए
सब इश्क़ के दा'वे रूठ गए
जाँ गुंग हुई दिल छूट गए
हर ज़ख़्म-ए-तमन्ना राख हुआ
जो शो'ला-ए-जाँ थर्राता हुआ
शफ़्फ़ाफ़ अँधेरी रातों में
रक़्साँ था फ़लक के ज़ीने पर
थक-हार के आख़िर बैठ रहा
*अहद=प्रतिज्ञा; माज़ी=गुज़रा कल; गुंग=गूंगी; श्फ़्फ़ाफ़=निर्मल; रक़्साँ=नृत्य करता हुआ
मटियाले बेहिस रेतीले
इन रस्तों पर
वो रस्ते
जिन पर रिश्तों के
रौशन चेहरे रू-पोश हुए
वो जिन के शोर-शराबे में
मन की आवाज़ें डूब गईं
दिल के हंगामे सर्द हुए
आईने नज़र के गर्द हुए
वो रस्ते भी क्या रस्ते थे
हर चार-तरफ़
इक धुँद की ख़ाकी चादर थी
और उस के आगे हद्द-ए-नज़र तक
फैली हुई
बे-जाँ लफ़्ज़ों
बे-मेहर युगों की
दलदल थी
*रू-पोश=छुपाए हुए; हद्द-ए-नज़र=दृष्टि की सीमा; बे-जाँ=बेजान; बे-मेहर=प्रेम रहित
वो शोला-ए-रक़्साँ हैराँ था
वो दीदा-ए-हैराँ गिर्यां था
वो ज़ेहन-ए-परेशाँ लर्ज़ां था
इक दिल का नगर सो वीराँ था
इक राही था जो उन बे-मेहर फ़ज़ाओं में
शौक़-ए-परवाज़ से
ख़ू-ए-सफ़र की बेताबी से हिरासाँ था
कुछ चाँद की मद्धम किरनें थीं
जो दर्द के सारे राज़ों से
वाक़िफ़ थीं मगर
इन मटियाले बेहिस गदले
रस्तों से
वो भी गुरेज़ाँ थीं
*शोला-ए-रक़्साँ=नृत्य रत शोला; दीदा-ए-हैराँ=आश्चर्यचकित; गिर्याँ=रोता हुआ; ज़ेहन-ए-परेशाँ=मन से दुखी; लर्ज़ाँ=काँपता; शौक़-ए-परवाज़=उड़ने का शौक़ीन; ख़ू-ए-सफ़र=यत्रा करने का आदी; हिरासाँ=सताया हुआ; बेहिस=संवेदन शून्य; गुरेज़ाँ=भागता हुआ
~ साजिदा ज़ैदी
जब मंज़र मंज़र फैले हुए
अन-देखे लम्बे हाथों ने
सब अहद पुराने लूट लिए
माज़ी के ख़ज़ाने लूट लिए
सब इश्क़ के दा'वे रूठ गए
जाँ गुंग हुई दिल छूट गए
हर ज़ख़्म-ए-तमन्ना राख हुआ
जो शो'ला-ए-जाँ थर्राता हुआ
शफ़्फ़ाफ़ अँधेरी रातों में
रक़्साँ था फ़लक के ज़ीने पर
थक-हार के आख़िर बैठ रहा
*अहद=प्रतिज्ञा; माज़ी=गुज़रा कल; गुंग=गूंगी; श्फ़्फ़ाफ़=निर्मल; रक़्साँ=नृत्य करता हुआ
मटियाले बेहिस रेतीले
इन रस्तों पर
वो रस्ते
जिन पर रिश्तों के
रौशन चेहरे रू-पोश हुए
वो जिन के शोर-शराबे में
मन की आवाज़ें डूब गईं
दिल के हंगामे सर्द हुए
आईने नज़र के गर्द हुए
वो रस्ते भी क्या रस्ते थे
हर चार-तरफ़
इक धुँद की ख़ाकी चादर थी
और उस के आगे हद्द-ए-नज़र तक
फैली हुई
बे-जाँ लफ़्ज़ों
बे-मेहर युगों की
दलदल थी
*रू-पोश=छुपाए हुए; हद्द-ए-नज़र=दृष्टि की सीमा; बे-जाँ=बेजान; बे-मेहर=प्रेम रहित
वो शोला-ए-रक़्साँ हैराँ था
वो दीदा-ए-हैराँ गिर्यां था
वो ज़ेहन-ए-परेशाँ लर्ज़ां था
इक दिल का नगर सो वीराँ था
इक राही था जो उन बे-मेहर फ़ज़ाओं में
शौक़-ए-परवाज़ से
ख़ू-ए-सफ़र की बेताबी से हिरासाँ था
कुछ चाँद की मद्धम किरनें थीं
जो दर्द के सारे राज़ों से
वाक़िफ़ थीं मगर
इन मटियाले बेहिस गदले
रस्तों से
वो भी गुरेज़ाँ थीं
*शोला-ए-रक़्साँ=नृत्य रत शोला; दीदा-ए-हैराँ=आश्चर्यचकित; गिर्याँ=रोता हुआ; ज़ेहन-ए-परेशाँ=मन से दुखी; लर्ज़ाँ=काँपता; शौक़-ए-परवाज़=उड़ने का शौक़ीन; ख़ू-ए-सफ़र=यत्रा करने का आदी; हिरासाँ=सताया हुआ; बेहिस=संवेदन शून्य; गुरेज़ाँ=भागता हुआ
~ साजिदा ज़ैदी
Jul 20, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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