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Monday, September 7, 2020

कभी जीने कभी मरने की ख़्वाहिश


कभी जीने कभी मरने की ख़्वाहिश रोक लेती है
वगर्ना मैं हवा की लहर में तहलील हो जाऊँ
किधर जाऊँ कि हर-सू साअतें रस्ते का पत्थर हैं
अगर बैठा रहूँ तो राख में तब्दील हो जाऊँ
*तहलील=विलय; हर-सू=चारो तरफ़; साअतें=क्षण

वो जादूगर था जिस ने रात पर पहरे बिठाए थे
वगर्ना अब तलक ये चाँद तारे मिट चुके होते
जुनून-ए-आगही मानूस आँखों से छलक जाता
बिसात-ए-ज़िंदगी के सारे मोहरे पिट चुके होते
*जुनून-ए-आगही=समझ-बूझ की ताब; मानूस= स्नेहशील

मुझे मालूम है इक चाँद दिन को भी निकलता है
मुझे मालूम है रातें भी इक ख़ुर्शीद रखती हैं
अगर ये दोनों आलम एक हो जाएँ तो फिर क्या हो
हवाएँ रात दिन यकताई की उम्मीद रखती हैं
*ख़ुर्शीद=सूरज; यकताई=अनूठापन

मगर इन वुसअतों को कौन बाँहों में समेटेगा
कहाँ से आएगी वो रौशनी जो मुंतही होगी
दिलों की तीरगी कुछ और गहरी होती जाती है
अज़िय्यत रौशनी की दिन की रग रग ने सही होगी
*मुंतही=परिपक्व; तीरगी=अंधेरा; अज़िय्यत=तकलीफ़

किधर जाऊँ कि हर सू रास्ते किरनों की सूरत हैं
मगर किरनों पे चलना बे-क़रारी को नहीं आता
वो नुक़्ता जिस पे मैं हूँ मरक़द-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ है
मगर इस सम्त कोई आह-ओ-ज़ारी को नहीं आता
*नुक़्ता=बिंदु; मरक़द-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ=विपदाओं से भरी शाम की समाधि; आह-ओ-ज़ारी=विलाप और शोक

~ शहज़ाद अहमद 

Sep 07, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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