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Thursday, September 24, 2020

क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो

क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो
ज़हर ही मुझ को मिला ज़हर पिया है मैं ने
कोई इस दश्त-ए-जुनूँ में मिरी वहशत देखे
अपने ही चाक-ए-गरेबाँ को सिया है मैं ने
*तल्ख़-नवाई=कड़वा कहना; वहशत=डर; फटा दामन

दैर ओ काबा में जलाए मिरी वहशत ने चराग़
मेरी मेहराब-ए-तमन्ना में अँधेरा ही रहा
रुख़-ए-तारीख़ पे है मेरे लहू का ग़ाज़ा
फिर भी हालात की आँखों में खटकता ही रहा
मैं ने खींची है ये मय मैं ने ही ढाले हैं ये जाम
पर अज़ल से जो मैं प्यासा था तो प्यासा ही रहा
ये हसीं अतलस-ओ-कम-ख़्वाब बुने हैं मैं ने
मेरे हिस्से में मगर दूर का जल्वा ही रहा

*दैर=मंदिर, काबा=मक्का का पवित्र स्थान; गाज़ा=मुँह पर मलने का पाउडर; अज़ल=आदि; अतलस-ओ-कम-ख़्वाब=रेशमी और बूटेदार

मुझ पे अब तक न पड़ी मेरे मसीहा की नज़र
मेरे ख़्वाबों की ये बेचैन ज़ुलेखाएँ हैं
जिन को ताबीर का वो यूसुफ़-ए-कनआँ न मिला
मैं ने हर लहजा में लोगों से कही बात मगर
जो मिरी बात समझता वो सुख़न-दाँ न मिला
कुफ़्र ओ इस्लाम की ख़ल्वत में भी जल्वत में भी
कोई काफ़िर न मिला कोई मुसलमाँ न मिला

*तासीर=सपने का अर्थ; सुख़न-दाँ=कविता समझने वाला; कुफ़्र=अविश्वास; ख़ल्वत=एकांत; जल्वत=प्रकट

मेरे माथे का अरक़ ढलता है टक्सालों में
पर मिरी जेब मिरे हाथ से शर्माई है
कभी मैं बढ़ के थपक देता हूँ रुख़्सार-ए-हयात
ज़िंदगी बैठ के मुझ को कभी समझाती है
रात ढलती है तो सन्नाटे की पगडंडी पर
अपने ख़्वाबों के तसव्वुर से हया आती है
*अरक़=पसीना; रुख़्सार-ए-हयात=जीवन का पहलू; तसव्वुर=कल्पना

क्यूँ मिरी तल्ख़-नवाई से ख़फ़ा होते हो
मेरी आवाज़ को ये ज़हर दिया है किस ने

~ राही मासूम रज़ा

Sep 23, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

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