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Saturday, September 19, 2015

तारे आँखें झपकावें हैं,



तारे आँखें झपकावें हैं, ज़र्रा-ज़र्रा सोए हैं
तुम भी सुनो हो यारो! शब में सन्नाटे कुछ बोलें हैं

हम हों या क़िस्मत हो, हमारी दोनों को इक ही काम मिला
क़िस्मत हमको रो लेवे है, हम क़िस्मत को रो लें हैं

जो मुझको बदनाम करें हैं, काश वे इतना सोच सकें
मेरा परदा खोलें हैं, या अपना परदा खोले हैं

सदक़े 'फ़िराक़', एजाज़े-सुख़न के कैसे उड़ा ली ये आवाज़
इन ग़ज़लों के परदों में तो ‘मीर’ की ग़ज़लें बोले हैं

*एजाज़े-सुख़न=शायरी का करिश्मा

~ फ़िराक़ गोरखपुरी


  Sep 19, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

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