चलो देखें,
खिड़कियों से
झाँकती है धूप
उठ जाएँ,
सुबह की ताज़ी हवा में
हम नदी के साथ
थोड़ा घूम-फिर आएँ !
चलो, देखें,
रात-भर में ओस ने
किस तरह से
आत्म मोती-सा रचा होगा !
फिर ज़रा-सी आहटों में
बिखर जाने पर,
दूब की उन फुनगियों पर
क्या बचा होगा ?
चलो चलकर
रास्ते में पड़े अन्धे
कूप में पत्थर गिराएँ,
रोशनी न सही तो,
आवाज़ ही पैदा करें
कुछ तो जगाएँ !
एक जंगल
अँधेरे का, रोशनी का
हर सुबह के वास्ते जंगल,
कल जहाँ पर जल भरा था
अन्धेरों में
धूप आने पर
वहीं दलदल।
चलो जंगल में,
कि दलदल में
भटकती चीख़ को,
टेरें, बुलाएँ,
पाँव के नीचे,
खिसकती रेत को
छेड़ें, वहीं पगचिह्न
अपने छोड़ आएँ।
~ दिनेश सिंह
Sep 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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