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Tuesday, September 19, 2017

रात ढलने लगी, चाँद बुझने लगा

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रात ढलने लगी, चाँद बुझने लगा,
तुम न आए, सितारों को नींद आ गई ।

धूप की पालकी पर, किरण की दुल्हन,
आ के उतरी, खिला हर सुमन, हर चमन,
देखो बजती हैं भौरों की शहनाइयाँ,
हर गली, दौड़ कर, न्योत आया पवन,

बस तड़पते रहे, सेज के ही सुमन,
तुम न आए बहारों को नीद आ गई ।

व्यर्थ बहती रही, आँसुओं की नदी,
प्राण आए न तुम, नेह की नाव में,
खोजते-खोजते तुमको लहरें थकीं,
अब तो छाले पड़े, लहर के पाँव में,

करवटें ही बदलती, नदी रह गई,
तुम न आए किनारों को नींद आ गई ।

रात आई, महावर रचे साँझ की,
भर रहा माँग, सिन्दूर सूरज लिए,
दिन हँसा, चूडियाँ लेती अँगडाइयाँ,
छू के आँचल, बुझे आँगनों के दिये,

बिन तुम्हारे बुझा, आस का हर दिया,
तुम न आए सहारों को नीद आ गई ।

~ मंजुल मयंक

  Sep 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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