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Saturday, January 6, 2018

पुन: शीत का आँचल फहरा

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पुन: शीत का आँचल फहरा...

जैसे मोती पात जड़े हैं,
हीरक कण झरते, बिखरे हैं,
डाली-डाली लुक-छुप, लुक-छुप
दल किरणों के खेल रहे हैं,
गोरे आसमान के सर पर
धूप ने बाँधा झिलमिल सेहरा |

पुन: शीत का आँचल फहरा।

बूढ़ी सर्दी हवा सुखाती,
कलफ़ लगा कर कड़क बनाती,
छटपट उसमें फँसी दुपहरी
समय काटने ठूँठ उगाती,
चमक रहा है सूर्य प्राणपण,
देखो हारा सा वह चेहरा |

पुन: शीत का आँचल फहरा।

रात कँटीली काली डायन,
सहमे घर औ’ राहें निर्जन,
है अधीन जादू निद्रा के
सभी दिशायें, जड़ औ’ जीवन,
अट्टहास करती रानी जब
सारा जग ज्यों जम कर ठहरा |

पुन: शीत का आँचल फहरा |

‍~ मानोशी चैटर्जी


  Jan 06, 2018| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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