ज़मीं का हुस्न सब्ज़ा (हरियाली) है
मगर अब सब्ज़ (हरे) पत्ते ज़र्द (पीले) हो कर झड़ते जाते हैं
बहारें देर से आती हैं
जुगनू है न तितली
ख़ुशबुओं... से रंग रूठे हैं
जहाँ जंगल हुआ करते थे
और बारिश धनक (इंद्रधनुष) ले कर उतरती थी
जहाँ बरसात में कोयल, पपीहे चहचहाते थे
वहाँ अब ख़ाक उड़ती है
दरख़्तों की कमी से आ गई है धूप में शिद्दत (कठोरता)
फ़ज़ा का मेहरबाँ हाला (किरणों का पुंज)पिघलता जा रहा है
आसमाँ ताँबे में ढलता जा रहा है
इस लिए बे-मेहर (प्रेम-विहीन) मौसम अब सताते हैं
धुएँ के, गर्द के, आलूदगी (दूषण) के, शोर के मौसम
गली, कूचों, घरों में कार-ख़ानों में बस अब
सड़क पर शोर बहता है
सुनाई ही नहीं देता हमारा दिल जो कहता है
मोहब्बत का परिंदा आज-कल ख़ामोश रहता है
परिंदे प्यास में डूबे हैं और पानी नहीं पीते
कि दरियाओं की शिरयानों (शिराओं) में
अब शफ़्फ़ाफ़ (निर्मल) पानी की जगह आलूदगी का ज़हर है
हमें जब बहर ओ बर (जमीं और पानी) की हुक्मरानी दी गई है तो
ये हम को सोचना होगा
ज़मीनों, पानियों, माहौल की बीमारियों का कोई मुदावा (इलाज) है
कहीं इन का सबब हम तो नहीं बनते?
सबब कोई भी हो आख़िर मुदावा कुछ तो करना है
ये तस्वीर-ए-जहाँ (दुनिया के ख़ाके) है रंग इस में हम को भरना है
~ ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
Jan 24, 2018| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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