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Thursday, October 13, 2016

आदमी के आज दुश्मन हैं बहुत

आदमी के आज दुश्मन हैं बहुत
राम कम हैं और रावन हैं बहुत

छल रहे हैं अब भी सोने के हिरन
मुश्किलों में आज लछमन हैं बहुत

हों वो कलियाँ या कि नाज़ुक फूल हों
हादिसों में इनके बचपन हैं बहुत

जितनी सुविधाएं मिलीं इंसान को
उतनी उसके साथ उलझन हैं बहुत

सबके चेहरों पर मुखौटे हैं उधर
और अंधेरों में ये दर्पन हैं बहुत

मालियों ने उनको देखा ही नहीं
जंगलों जैसे ही उपवन हैं बहुत

सबके कमरे और चौखट हैं अलग
आंगनों में आज अनबन हैं बहुत

कंगनों को रास आती ही नहीं
चूड़ियों में वो जो खनखन हैं बहुत

हों वो मरुथल या जलाशय हों 'कुँअर'
सबकी ही आँखों में सावन हैं बहुत

~ कुँअर बेचैन

  Oct 11, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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