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Friday, October 21, 2016

यह संगीत है जो अविराम है



यह संगीत है जो अविराम है
यह भीड़ में है
जो अकेलेपन के कक्ष में
गूँजता है अलग बंदिश में
शब्द में
निःशब्द में
हवा में
निर्वात में
संगीत है

यह जिजीविषा जो
कभी सितार है
कभी बाँसुरी
कभी अनसुना वाद्ययंत्र
और यह दुःख के साथ-साथ
जो कातरता बज रही है शहनाई में

और यह दुराचारी का दर्प
जो भर गया है नगाड़े में
यह संगीत है
जो छिप नहीं सकता
यह है भीतर से बाहर आता हुआ
यह है बाहर से
भरता हुआ भीतर

यह संगीत है
कभी टिमटिमाता हुआ एक तार पर
कभी गुँजाता हुआ पूरी कायनात का सभागार।

~ कुमार अंबुज


  Oct 20, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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