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Saturday, October 22, 2016

मैंने फूल को सराहा



मैंने फूल को सराहा:
‘देखो, कितना सुन्दर है, हँसता है !
तुमने उसे तोड़ा
और जूड़े में खोंस लिया l

मैंने बौर को सराहा:
‘देखो, कैसी भीनी गन्ध है !’
तुमने उसे पीसा
और चटनी बना डाली l

मैंने कोयल को सराहा:
‘देखो, कैसा मीठा गाती है !’
तुमने उसे पकड़ा
और पिंजरे में डाल दिया l

एक युग पहले की बातें ये
आज याद आतीं नहीं क्या तुम्हें ?
क्या तुम्हारे बुझे मन, हत-प्राण का है यही भेद नहीं :
हँसी, गन्ध, गीत जो तुम्हारे थे
वे किसी ने तोड़ लिए, पीस दिए, कैद किए ?

मुक्त करो !
मुक्त करो ! -
जन्म-भर की यह यातना भी
इस ज्ञान के समक्ष तुच्छ है :
हँसी फूल में नहीं,
गन्ध बौर में नहीं,
गीत कंठ में नहीं,
हँसी, गन्ध, गीत - सब मुक्ति में हैं
मुक्ति ही सौन्दर्य का अन्तिम प्रमाण है !

~ भारत भूषण अग्रवाल


  Oct 22, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

1 comment:

  1. जनार्दनNovember 19, 2016 at 11:49 AM

    धन्यवाद। बहुत ढूूंढ़ने के बाद ये कविता यहां मिली। 'मुक्त करो। मुक्त करो।' की जगह 'मुक्त करो। मुक्त रहो।' है। इसको ठीक कर लीजिये।

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