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Friday, October 21, 2016

अब कुछ ठीक नहीं



अब कुछ ठीक नहीं।

मैं कब हँस पडूँ
कब चीखकर
अपना गला दबा लूँ
कब छुरा उठाकर
सामने वार कर बैठूँ
अब कुछ ठीक नहीं ।

मेरे चारों तरफ
कुएँ का यह घेरा
सँकरा होता होता
मेरे जिस्म को ही नहीं
मेरी आत्मा को छूने लगा है
अब कुचला जाना मेरी नियति बनता जा रहा है ।

मुझे धरती दरक जाने का डर नहीं था
न आसमान फटने का
उनमें से रास्ता निकालना
मैं जानता था,
युगों से मैं यही करता आ रहा हूँ ।
लेकिन अब
जिस सिकुड़ते घेरे में मैं पड़ गया हूँ
उसकी हर ईंट का
मुझे दबोचने का तरीका अजीब है -
वह या तो
देखते ही पीछे हट जाती है,
छूते ही आकार खो देती है,
या कुछ कहते ही
पिघलकर पानी बन जाती है ।
कायरों, ढोंगियों और मूर्खों का यह घेरा
बनता जा रहा है इतिहास मेरा ।

मैं सोचता था
इन्हें पहचानकर
इन्हें सही-सही समझकर
मैं इस कुएँ के बाहर
निकल आऊँगा
और इसी के सहारे
एक व्यापक हरा-भरा संसार रचूँगा।

लेकिन अब किसी की
कोई पहचान नहीं
और इनसे घिरकर
मैं अपनी पहचान भी
खोता जा रहा हूँ l
अब कुछ ठीक नहीं
मैं कब क्या हो जाऊँ ?

कब हँस पडूँ
कब चीखकर
अपना गला दबा लूँ
कब छुरा उठाकर
सामने वार कर बैठूँ

अब कुछ ठीक नहीं ।

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


  Oct 21, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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