अब कुछ ठीक नहीं।
मैं कब हँस पडूँ
कब चीखकर
अपना गला दबा लूँ
कब छुरा उठाकर
सामने वार कर बैठूँ
अब कुछ ठीक नहीं ।
मेरे चारों तरफ
कुएँ का यह घेरा
सँकरा होता होता
मेरे जिस्म को ही नहीं
मेरी आत्मा को छूने लगा है
अब कुचला जाना मेरी नियति बनता जा रहा है ।
मुझे धरती दरक जाने का डर नहीं था
न आसमान फटने का
उनमें से रास्ता निकालना
मैं जानता था,
युगों से मैं यही करता आ रहा हूँ ।
लेकिन अब
जिस सिकुड़ते घेरे में मैं पड़ गया हूँ
उसकी हर ईंट का
मुझे दबोचने का तरीका अजीब है -
वह या तो
देखते ही पीछे हट जाती है,
छूते ही आकार खो देती है,
या कुछ कहते ही
पिघलकर पानी बन जाती है ।
कायरों, ढोंगियों और मूर्खों का यह घेरा
बनता जा रहा है इतिहास मेरा ।
मैं सोचता था
इन्हें पहचानकर
इन्हें सही-सही समझकर
मैं इस कुएँ के बाहर
निकल आऊँगा
और इसी के सहारे
एक व्यापक हरा-भरा संसार रचूँगा।
लेकिन अब किसी की
कोई पहचान नहीं
और इनसे घिरकर
मैं अपनी पहचान भी
खोता जा रहा हूँ l
अब कुछ ठीक नहीं
मैं कब क्या हो जाऊँ ?
कब हँस पडूँ
कब चीखकर
अपना गला दबा लूँ
कब छुरा उठाकर
सामने वार कर बैठूँ
अब कुछ ठीक नहीं ।
~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
Oct 21, 2016| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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