नींद बड़ी गहरी थी, झटके से टूट गई
तुमने पुकारा, या द्वार आकर लौट गए।
बार बार आई मैं, द्वार तक न पाया कुछ
बार बार सोई पर, स्वप्न भी न आया कुछ
अनसोया अनजागा, हर क्षण तुमको सौंपा
तुमने स्वीकारा, या द्वार आकर लौट गए।
चुप भी मैं रह न सकी, कुछ भी मैं कह न सकी
झील रही, जीवन की सरिता वन बह न सकी
रूठा मन राजहंस, तुम तक पहुंचा होगा
तुमने मनुहारा, या द्वार आकर लौट गए।
संझवाती बेला में, कोयल जब कूकी थी
मेरे मन में कोई, पीड़ा सी हूकी थी
अनचाही पाहुनिया, पलकों में ठहर गई
तुमने निहारा, या द्वार आकर लौट गए।
रात चली पुरवाई, ऋतु ने ली अंगड़ाई
मेरे मन पर किसने, केशर सी बिखराई
सूधि की भोली अलकें, माथे घिर आई थीं
तुमने संवारा, या द्वार आकर लौट गए।
मन के इस सागर में, सीप बंद मोती सी
मेरी अभिलाषा, सपनों में भी सोती सी
पलकों के तट आकर, बार बार डूबी भी
तुमने उबारा, या द्वार आकर लौट गए।
कितने ही दीपक मैं, आंचल की ओट किये
नदिया तक लाई थी, लहरों पर छोड़ दिए
लहरों की तरनी से, दीपों के राही को
तट पर उतारा, या द्वार आकर लौट गए।
∼ वीरबाला भावसार
Feb 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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