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Thursday, February 9, 2017

बिटिया अब ससुराल चली

Image may contain: mountain, sky, cloud, outdoor and nature

शिखर शिखारियों मे मत रोको,
उसको दौड़ लखो मत टोको,
लौटे ? यह न सधेगा रुकना
दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना,

अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

तुम ऊंचे उठते हो रह रह
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते यह,

भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,

तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

डेढ सहस मील मे इसने
प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ,
तरल तारिणी तरला ने
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ,
श्रृद्धा से दो बातें करती,
साहस पे न्यौछावर होती,
धारा धन्य की ललच उठी है,
मैं पंथिनी अपने घर होती,

हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित 'भू'
ओढे नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,

इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे,
लिए हुए छविमान हिमालय,
मन्त्र-मन्त्र गुंजित करते हो,
भारत को वरदान हिमालय,
उच्च, सुनो सागर की गुरुता,
कर दो कन्यादान हिमालय |
पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

~ माखनलाल चतुर्वेदी


  Feb 8, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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