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Sunday, February 26, 2017

मन सूखे पौधे लगते हैं


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मन सूखे पौधे लगते हैं
रातों के बातूनी खंडहर दिन कितने बौने लगते हैं।

मन में उपजे मन में पनपे
मन में उम्रदराज़ हो गए
मन ही मन लड्डू से फूटे
मन ही मन नाराज़ हो गए
ढेरों-ढेरों बहुत बुरे भी कभी-कभी अच्छे लगते हैं।

बात नहीं बस ढंग कहने का
शाम नहीं चुप्पी खलती है
आग नहीं तासीर से डरना
ठंडी दिखती है जलती है
पल-पल बदल रहे हैं फिर भी हर पर इकलौते लगते हैं।

भरता जाता रिसता जाता
अजब गजब है अपना खाता
आगे दौड़े पीछे देखे
मन का भी कुछ समझ न आता
जीवन के पिछले पन्ने हम घाटे के सौदे लगते हैं।

~ देवेन्द्र आर्य


  Feb 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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