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Monday, February 6, 2017

है अजीब शहर कि ज़िंदगी

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है अजीब शहर कि ज़िंदगी, न सफ़र रहा न क़याम है
कहीं कारोबार सी दोपहर, कहीं बदमिज़ाज सी शाम है
*क़याम=ठहराव

कहाँ अब दुआओं कि बरकतें, वो नसीहतें, वो हिदायतें
ये ज़रूरतों का ख़ुलूस है, या मतलबों का सलाम है
*ख़ुलूस=स्नेह

यूँ ही रोज़ मिलने कि आरज़ू बड़ी रख-रखाव कि गुफ्तगू
ये शराफ़ातें नहीं बे ग़रज़ उसे आपसे कोई काम है

वो दिलों में आग लगायेगा मैं दिलों कि आग बुझाऊंगा
उसे अपने काम से काम है मुझे अपने काम से काम है

न उदास हो न मलाल कर, किसी बात का न ख्याल कर
कई साल बाद मिले है हम, तिरे नाम आज की शाम है

कोई नग्मा धूप के गाँव सा, कोई नग़मा शाम की छाँव सा
ज़रा इन परिंदों से पूछना ये कलाम किस का कलाम है
*कलाम=बात या कविता

‍‍‍~ बशीर बद्र


  Feb 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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