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Thursday, February 2, 2017

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ


 
  
 
 
 
 
 
 
 
 
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे

वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
*ख़ार=काँटा; मानिंद=भाँति

ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे
*तज़्किरे=चर्चायें

मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
*ज़ूद-फ़रामोश=भुलक्कड़ ; ज़ूद-रंज=शीघ्रबुरा मान जाने वाला

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे
*नासेहो=उपदेशको

जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है 'फ़राज़'
अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे
*सर-ए-मंज़िल=गंतव्य के पास

~ अहमद फ़राज़


  Feb 2, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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