करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
*ख़ार=काँटा; मानिंद=भाँति
ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे
*तज़्किरे=चर्चायें
मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
*ज़ूद-फ़रामोश=भुलक्कड़ ; ज़ूद-रंज=शीघ्रबुरा मान जाने वाला
वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे
*नासेहो=उपदेशको
जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है 'फ़राज़'
अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे
*सर-ए-मंज़िल=गंतव्य के पास
~ अहमद फ़राज़
Feb 2, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
*ख़ार=काँटा; मानिंद=भाँति
ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे
*तज़्किरे=चर्चायें
मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
*ज़ूद-फ़रामोश=भुलक्कड़ ; ज़ूद-रंज=शीघ्रबुरा मान जाने वाला
वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे
*नासेहो=उपदेशको
जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है 'फ़राज़'
अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे
*सर-ए-मंज़िल=गंतव्य के पास
~ अहमद फ़राज़
Feb 2, 2017| e-kavya.blogspot.com
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