
हम अनिकेतन, हम अनिकेतन !
हम तो रमते राम हमारा क्या घर, क्या दर, कैसा वेतन?
अब तक इतनी योंही काटी, अब क्या सीखें नव परिपाटी
कौन बनाये आज घरौंदा हाथों चुन-चुन कंकड़-माटी
ठाठ फकीराना है अपना बाघाम्बर सोहे अपने तन?
देखे महल, झोंपड़े देखे, देखे हास-विलास मज़े के
संग्रह के सब विग्रह देखे, जँचे नहीं कुछ अपने लेखे
लालच लगा कभी पर हिय में मच न सका शोणित-उद्वेलन!
हम जो भटके अब तक दर-दर, अब क्या खाक बनायेंगे घर
हमने देखा सदन बने हैं लोगों का अपनापन लेकर
हम क्यों सने ईंट-गारे में हम क्यों बने व्यर्थ में बेमन?
ठहरे अगर किसीके दर पर कुछ शरमाकर कुछ सकुचाकर
तो दरबान कह उठा, बाबा, आगे जा देखो कोई घर
हम रमता बनकर बिचरे पर हमें भिक्षु समझे जग के जन!
हम अनिकेतन!
*अनिकेतन=बंजारे
~ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
Aug 5, 2015| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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