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Sunday, August 2, 2015

जख़्म भर जाते हैं

जख़्म भर जाते हैं
जेहनों से उतर जाते हैं
दिन गुज़रता है तो फिर शब भी गुज़र जाती है
फूल जिस शाख़ से झड़ जाते हैं,
मर जाते है ।

चंद ही रोज़ मे
उस शाख़ पे आइंदा के फूलों के नगीने-से उभर आते है।
तेरे जाने से मेरी ज़ात के अंदर जो ख़ला गूँजता है
इक न इक दिन उसे भर जाना है
इक न इक रोज़ तुझे
मेरी फैली हुई, तरसी हुई बाहों में पलट आना हे!

*आइंदा=भविष्य में; ज़ात=अस्तित्व; ख़ला=अन्तरिक्ष

~ अहमद नदीम क़ासमी

   Aug 2, 2015| e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

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