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Thursday, August 4, 2016

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला




उल्फ़त की नई मंज़िल को चला, तू बाँहें डाल के बाँहों में
दिल तोड़ने वाले देख के चल, हम भी तो पड़े हैं राहों में

क्या क्या न जफ़ायेँ दिल पे सहीं, पर तुम से कोई शिकवा न किया
इस जुर्म को भी शामिल कर लो, मेरे मासूम गुनाहों में

जहाँ चाँदनी रातों में तुम ने ख़ुद हमसे किया इक़रार-ए-वफ़ा
फिर आज हैं हम क्यों बेगाने, तेरी बेरहम निगाहों में

हम भी हैं वहीं, तुम भी हो वही, ये अपनी-अपनी क़िस्मत है
तुम खेल रहे हो ख़ुशियों से, हम डूब गये हैं आहों में

~ क़तील शिफ़ाई


Aug 03, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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