दरख़्तों से जुदा होते हुए पत्ते अगर बोलें,
तो जाने कितने भूले-बिसरे अफ़्सानों के दर खोलें।
इकट्ठे बैठ कर बातें न फिर शायद मयस्सर हों,
चलो इन आख़िरी लम्हों में जी भर कर हँसें बोलें।
हवा में बस गई है फिर किसी के जिस्म की ख़ुशबू,
ख़यालों के परिंदे फिर कहीं उड़ने को पर तौलें।
जहाँ थे मुत्तफ़िक़ सब अपने बेगाने डुबोने को,
उसी साहिल पे आज अपनी अना की सीपियाँ रोलें।
*मुत्तफ़िक़=सहमति; अना=अहं; रोलें ==निखारें, चमकायें
भँवर ने जिन को ला फेंका था इस बे-रहम साहिल पर,
हवाएँ आज फिर उन कश्तियों के बादबाँ खोलें ।
*बादबाँ=पानी के जहाज़ का पाल या पर्दा, पोतपत
न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला,
अकेले आइने के सामने हँस लें कभी रो लें।
~ ख़ालिद शरीफ़
Mar 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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