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Sunday, April 23, 2017

है मन का तीर्थ बहुत गहरा



है मन का तीर्थ बहुत गहरा।
हंसना‚ गाना‚ होना उदास‚
ये मापक हैं न कभी मन की गहराई के।
इनके नीचे‚ ....नीचे‚ ........नीचे‚
है कुछ ऐसा‚
जो हरदम भटका करता है।

हंसते हंसते‚ बातें करते‚ एक बहुत उदास
थकी सी जो निश्वास‚
निकल ही जाती है‚
मन की भोली गौरैया को
जो कसे हुए है भारी भयावना अजगर‚
ये सांस उसी की आती है‚
है जिसमें यह विश्वास
नहीं हूं मैं वह कुछ।
ये तो चिंताओं पीड़ाओं के अंधड़ हैं।
जो हर वसंत को पतझड़ करने आते हैं।
मन के इनसे कुछ गहरे रिश्ते नाते हैं।
पर इनसे हट कर‚ बच कर कुछ
इक स्वच्छ सरोवर भी है मन में अनजाना‚
जिस तक जाना कुछ मुश्किल है।
जब किसी पुनीता वेला में कोई यात्री
संवेदन का पाथेय संभाले आता है
इस मन के पुण्य सरोवर पर‚
दो चार सीढ़ियां
और उतर कर‚
और उतर कर‚
मन तड़ाग पर छाए अजगर‚ अंधड़ को
केवल अपनी लकुटी के बल पर
जीत या कि मोहित कर के‚
बढ़ जाता है इस मन के मान सरोवर तक‚
मन का जादूई तड़ाग
तुरत कमलों से भर भर जाता है‚
ऐसे ही पुलक क्षणों में
कोई अपना सा हो जाता है।
है मन का तीर्थ बहुत गहरा।

∼ डॉ. वीरबाला भावसार

  Apr 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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