ख़ुदा के वास्ते अब बे-रुख़ी से काम न ले,
तड़प के फिर कोई दामन को तेरे थाम न ले।
बस एक सज्दा-ए-शुकराना पा-ए-नाज़ुक पर,
ये मै-कदा है यहाँ पर ख़ुदा का नाम न ले।
*सज्दा-ए-शुकराना=प्रार्थना
ज़माने भर में हैं चर्चे मिरी तबाही के,
मैं डर रहा हूँ कहीं कोई तेरा नाम न ले।
मिटा दो शौक़ से मुझ को मगर कहीं तुम से,
ज़माना मेरी तबाही का इंतिक़ाम न ले।
जिसे तू देख ले इक बार मस्त नज़रों से,
वो उम्र भर कभी हाथों में अपने जाम न ले।
रखूँ उमीद-ए-करम उस से अब मैं क्या 'साहिर',
कि जब नज़र से भी ज़ालिम मिरा सलाम न ले।
*कृपा की उम्मीद
~ साहिर भोपाली
Mar 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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