आह वेदना मिली विदाई
निज शरीर की ठठरी लेकर
उपहारों की गठरी लेकर
पहुँचा जब मैं द्वार तुम्हारे
सपनोंकी सुषमा उर धारे
मिले तुम्हारे पूज्य पिताजी
मुझको कस कर डांट बतायी
आह वेदना मिली विदाई
प्राची में ऊषा मुसकायी
तुमसे मिलने की सुधि आयी
निकला घर से मैं मस्ताना
मिला राह में नाई काना
पड़ा पाँव के नीचे केला
बची टूटते आज कलाई
आह वेदना मिली विदाई
चला तुम्हारे घर से जैसे
मिले राह में मुझको भैंसे
किया आक्रमण सबने सत्वर
मानों मैं भूसे का गट्ठर
गिरा गटर में प्रिये आज
जीवनपर अपने थी बन आयी
आह वेदना मिली विदाई
अब तो दया करो कुछ बाले
नहीं संभलता हृदय संभाले
शान्ति नहीं मिलती है दो क्षण
है कीटाणु प्रेम का भीषण
'लव' का मलहम शीघ्र लगाओ
कुछ तो समझो पीर पराई
आह वेदना मिली विदाई
~ बेढब बनारसी
(बेढब जी के अनुसार, इस कविता का 'आह वेदना ..' जय शंकर प्रसाद जी
की कविता से ज़्यादा कुछ लेना देना नहीं है।)
Mar 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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