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Thursday, March 17, 2016

तुमने मुझे और गूँगा बना दिया



तुमने मुझे और गूँगा बना दिया
एक ही सुनहरी आभा-सी
सब चीज़ों पर छा गई

मै और भी अकेला हो गया
तुम्हारे साथ गहरे उतरने के बाद
मैं एक ग़ार से निकला
अकेला, खोया हुआ और गूँगा

अपनी भाषा तो भूल ही गया जैसे
चारों तरफ़ की भाषा ऐसी हो गई
जैसे पेड़ पौधों की होती है
नदियों में लहरों की होती है

हज़रत आदम के यौवन का बचपना
हज़रत हौवा की युवा मासूमियत
कैसी भी! कैसी भी!

ऐसा लगता है जैसे
तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो
मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में
आनंद का स्थायी ग्रास... हूँ

मूक।

~ शमशेर बहादुर सिंह


  Mar 13, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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