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Thursday, March 17, 2016

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी




ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे
*कड़ी= कष्ट, संकट

अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे
*गाम=क़दम; लरज़=काँप

मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं
अपने ही पावों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे

तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर
यह गिरह अब के मेरे दिल पे पड़ी हो जैसे
*गिरह=गाँठ

कितने नादान हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे

आज दिल खोल के रोये हैं तो यूँ ख़ुश हैं फ़राज़
चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे

~ अहमद फ़राज़


  Mar 04, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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