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Saturday, July 9, 2016

बाँट दो सारा समंदर तृप्ति के





बाँट दो सारा समंदर तृप्ति के अभिलाषकों में,
मैं अंगारे से दहकते प्यास के क्षण माँगता हूँ,

दूर तक फैली हुई अम्लान कमलों की कतारें,
किन्तु छोटा है बहुत मधुपात्र रस लोभी भ्रमर का,
रिक्त हो पाते भला कब कामनाओं की सुराही,
टूट जाता है चिटख कर किन्तु हर प्याला उमर का,

बाँट दो मधुपर्क सारा इन सफल आराधकों में,
देवता मैं तो कठिन उपवास के क्षण माँगता हूँ,

वह नहीं धनवान जिसके पास भारी संपदा है,
वह धनी है, जो कि धन के सामने झुकता नहीं है,
प्यास चाहे ओंठ पर सारे मरुस्थल ला बिछाये,
देखकर गागर पराई, किन्तु जो रुकता नहीं है,

बाँट दो सम्पूर्ण वैभव तुम कला के साधकों में,
किन्तु मैं अपने लिये सन्यास के क्षण माँगता हूँ,

जिस तरफ भी देखिये, सहमा हुआ वातावरण है,
आदमी के वास्ते दुष्प्राप्य छाया की शरण है,
दफ़्तरों में मेज पर माथा झुकाये बीतता दिन,
शाम को ढाँके हुए लाचारगी का आवरण है,

व्यस्तता सारी लुटा दो इन सुयश के ग्राहकों में,
मैं सृजन के वास्ते अवकाश के क्षण माँगता हूँ,

जिन्दगी में कुछ अधूरा ही रहे, यह भी उचित है,
मैं दुखों की बाँह में यों ही तड़पना चाहता हूँ,
रात भर कौंधे नयन में, जो मुझे सोने नहीं दे,
सत्य सारे बेच कर वह एक सपना चाहता हूँ,

बाँट दो उपलब्धियाँ तुम सृष्टि के अभिभावकों में,
मैं पसीने से धुले अभ्यास के क्षण माँगता हूँ ।

~ बालस्वरूप राही


Jun 28, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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