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Saturday, July 9, 2016

तुम सुधि बन-बन कर बार-बार



तुम सुधि बन-बन कर बार-बार
क्यों कर जाती हो प्यार मुझे?
फिर विस्मृति बन तन्मयता का
दे जाती हो उपहार मुझे ।

मैं करके पीड़ा को विलीन
पीड़ा में स्वयं विलीन हुआ
अब असह्य बन गया देवि,
तुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे ।

माना वह केवल सपना था,
पर कितना सुन्दर सपना था
जब मैं अपना था, और सुमुखि
तुम अपनी थीं, जग अपना था ।

जिसको समझा था प्यार, वही
अधिकार बना पागलपन का
अब मिटा रहा प्रतिपल, तिल-तिल
मेरा निर्मित संसार मुझे ।

~ भगवतीचरण वर्मा


Jun 23, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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