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Sunday, July 16, 2017

ओ मेरी सह-तितिर्षु

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ओ मेरी सह-तितिर्षु,
हमीं तो सागर हैं
जिस के हम किनारे हैं क्योंकि इसे हमने
पार कर लिया है।

ओ मेरी सहयायिनि,
हमीं वह निर्मल तल-दर्शी वापी हैं
जिसे हम ओक-भर पीते हैं—
बार-बार, तृषा से, तृप्ति से, आमोद से, कौतुक से,
क्योंकि हमीं छिपा वह उत्स हैं जो उसे
पूरित किए रहता है।

ओ मेरी सहधर्मा,
छू दे मेरा कर, आहुति दे दूँ
हमीं याजक हैं, हमीं यज्ञ,
जिसमें हुत हमीं परस्परेष्टि।
ओ मेरी अतृप्त, दुःशम्य धधक, मेरी होता,
ओ मेरी हविष्यान्न,
आ तू, मुझे खा
जैसे मैंने तुझे खाया है,
प्रसादवत्।
हम परस्पराशी हैं क्योंकि परस्परपोषी हैं
परस्परजीवी हैं।

*कठिन शब्दार्थ: सह-तितिर्षु=साथ तैरने या मोक्ष पाने को इच्छुक; सहयायिनि,=साथ चलने वाला; वापी=जलाशय; उत्स=श्रोत; याजक=यज्ञ करने वाला; दुःशम्य=जो शांत न होती हो; हविष्यान्न=पवित्र भोजन; परस्पराशी =परस्पर आश्रित; परस्परपोषी=एक दूसरे को पोषित करने वाले

~ अज्ञेय


  Jun 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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