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Sunday, July 30, 2017

नहीं कहीं मिलती है छांव!

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1.
नहीं कहीं मिलती है छांव!
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
राह अजानी, लोग अजाने,
जितने भी संयोग अजाने,
अनजाने से मिली मुझे जो
भूख अजानी, भोग अजाने!
एक भुलावा कडुवा -मीठा,
एक छलावा ठांव-कुठांव,
जिसको समझूं अपनी मंजिल
नहीं कहीं दिखता वह गांव,
नहीं कहीं रुकते है पांव!

2.
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत?
नित्य टूटते रहते सपने,
नित्य बिछडते रहते अपने,
एक जलन लेकर प्राणों में
मैं आया हूं केवल तपने!
वर्तमान हो या भविष्य हो
बन जाता है विवश अतीत।
और शून्य में लय हो जाते
सुख-दुख के ये जितने गीत!
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत!

3.
एक सांस है सस्मित चाह।
एक सांस है आह-कराह!
बडी प्रबल है गति की धारा।
मैं पथभूला, मैं पथहारा।
जिसको देखा वही विवश है-
किसको किसका कौन सहारा?
रंग-बिरंगे स्वप्न संजोए
मेरे उर का तमस अथाह-
ज्यों- ज्यों घटती जाती दूरी
त्यों -त्यों बढ़ती जाती राह!
एक सांस है सस्मित चाह,
एक सांस है आह-कराह!

4.
कब बुझ पाई किसकी प्यास?
और सत्य कब हास -विलास?
नहीं यहां पर ठौर-ठिकाना।
सुख अनजाना, दुख अनजाना
पग-पग पर बुनता जाता है
काल-नियति का ताना-बाना!
मेरे आगे है मरीचिका।
मेरे अंदर है विश्वास,
जो कि मृत्यु पर चिर-विजयी है
वह जीवन है मेरे पास!
मेरा जीवन केवल प्यास।

~ गोरख नाथ


  Jun 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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