कुछ अजब आन से लोगों में रहा करते थे
हम ख़फ़ा हो के भी आपस में मिला करते थे
इतनी तहज़ीब-ए-रह-ओ-रस्म तो बाक़ी थी कि वो
लाख रंजिश सही वादा तो वफ़ा करते थे
*तहज़ीब-ए-रह-ओ-रस्म=सभ्यता और रिवाज़
उस ने पूछा था कई बार मगर क्या कहते
हम मिज़ाजन ही परेशान रहा करते थे
*मिज़ाजन=दिमागी तौर से
ख़त्म था हम पे मोहब्बत का तमाशा गोया
रूह और जिस्म को हर रोज़ जुदा करते थे
एक चुप-चाप लगन सी थी तिरे बारे में
लोग आ आ के सुनाते थे सुना करते थे
तेरी सूरत से ख़ुदा से भी शनासाई थी
कैसे कैसे तिरे मिलने की दुआ करते थे
*शनासाई=जान पहचान
उस को हम-राह लिए आते थे मेरी ख़ातिर
मेरे ग़म-ख़्वार मिरे हक़ में बुरा करते थे
*ग़म-ख़्वार=दिलासा देने वाले
ज़िंदगी हम से तिरे नाज़ उठाए न गए
साँस लेने की फ़क़त रस्म अदा करते थे
हम बरस पड़ते थे 'शाज़' अपनी ही तन्हाई पर
अब्र की तरह किसी दर से उठा करते थे
*अब्र=बादल
~ शाज़ तमकनत
हम ख़फ़ा हो के भी आपस में मिला करते थे
इतनी तहज़ीब-ए-रह-ओ-रस्म तो बाक़ी थी कि वो
लाख रंजिश सही वादा तो वफ़ा करते थे
*तहज़ीब-ए-रह-ओ-रस्म=सभ्यता
उस ने पूछा था कई बार मगर क्या कहते
हम मिज़ाजन ही परेशान रहा करते थे
*मिज़ाजन=दिमागी तौर से
ख़त्म था हम पे मोहब्बत का तमाशा गोया
रूह और जिस्म को हर रोज़ जुदा करते थे
एक चुप-चाप लगन सी थी तिरे बारे में
लोग आ आ के सुनाते थे सुना करते थे
तेरी सूरत से ख़ुदा से भी शनासाई थी
कैसे कैसे तिरे मिलने की दुआ करते थे
*शनासाई=जान पहचान
उस को हम-राह लिए आते थे मेरी ख़ातिर
मेरे ग़म-ख़्वार मिरे हक़ में बुरा करते थे
*ग़म-ख़्वार=दिलासा देने वाले
ज़िंदगी हम से तिरे नाज़ उठाए न गए
साँस लेने की फ़क़त रस्म अदा करते थे
हम बरस पड़ते थे 'शाज़' अपनी ही तन्हाई पर
अब्र की तरह किसी दर से उठा करते थे
*अब्र=बादल
~ शाज़ तमकनत
Jun 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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