वर्ना देखा ही नहीं तेरी तलब से आगे
ये मोहब्बत है इसे देख तमाशा न बना
मुझ से मिलना है तो मिल हद्द-ए-अदब से आगे
*श्रद्धा की सीमा
ये अजब शहर है क्या क़हर है ऐ दिल मेरे
सोचता कोई नहीं ख़्वाब-ए-तरब से आगे
*क़हर=; ख़्वाब-ए-तरब=संतुष्टि का सपना
अब नए दर्द पस-ए-अश्क-ए-रवाँ जागते हैं
हम कि रोते थे किसी और सबब से आगे
*पस-ए-अश्क-ए-रवाँ=बहते हुए आँसुओँ के बाद
'शाज़' यूँ है कि कोई पल भी फ़ुसूँ-कार नहीं
ध्यान आते थे मिरे दिल में अजब से आगे
*फ़ुसूँ-कार=जादुई
~ ज़करिय़ा शाज़
Jun 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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