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Friday, August 4, 2017

यही ललक है, युगों-युगों से,

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यही ललक है, युगों-युगों से, एक झलक मैं उनकी पाऊं,
भवबंधन कट जाएं सारे, मुक्त गगन से, मैं मिल जाऊं।

पलक झपक न जाए कहीं ये, जब साजन का आना हो,
खनक न जाए कहीं ये पायल, छुप-छुपकर जब जाना हो,
प्रेम अगन में मगन है मनवा, किन छंदों में हाल सुनाऊं,
यही ललक है, युगों-युगों से, एक झलक मैं उनकी पाऊं,
भवबंधन कट जाएं सारे, मुक्त गगन से, मैं मिल जाऊं।

सदियों से जो बर्फ जमी है, मन कहता है पिघलेगी,
प्रेम की गंगा कभी बंधी है, चीर हिमालय निकलेगी,
लगन मेरी है जनम-जनम की, इक पल में क्या हाल सुनाऊं,
यही ललक है, युगों-युगों से, एक झलक मैं उनकी पाऊं,
भवबंधन कट जाएं सारे, मुक्त गगन से, मैं मिल जाऊं।

छलक न जाए कहीं गगरिया, जब आएं वो मेरी नगरिया,
ठिठक न जाएं कहीं कदम ये, भूल न जाएं कहीं डगरिया,
नयन बंद हों इससे पहिले, मैं भी उनसे नयन मिलाऊं,
यही ललक है, युगों-युगों से, एक झलक मैं उनकी पाऊं,
भवबंधन कट जाएं सारे, मुक्त गगन से, मैं मिल जाऊं।

~ कैलाश यादव 'सनातन'


  Jul 25 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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