ज़ुल्फ़ घटा बन कर रह जाए आँख कँवल हो जाए
शायद उन को पल भर सोचें और ग़ज़ल हो जाए
जिस दीपक को हाथ लगा दो जलें हज़ारों साल
जिस कुटिया में रात बिता दो ताज-महल हो जाए
कितनी यादें आ जाती हैं दस्तक दिए बग़ैर
अब ऐसी भी क्या वीरानी घर जंगल हो जाए
तुम आओ तो पँख लगा कर उड़ जाए ये शाम
मीलों लम्बी रात सिमट कर पल दो पल हो जाए
~ क़ैसर-उल जाफ़री
Aug 4 , 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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