आओ दूर गगन में उड़ चलें,
उड़ चलें
आओ दूर गगन में हम चलें
सूरज की अगन
प्यार की तपन
कहीं तो होगा
चांद-तारों का मिलन
आओ चिड़िया से पूछें
क्यों करती है अविरल कौतूहल
क्या नहीं व्योम से मिला कभी
उसको विरहा का कुछ प्रतिफल
अरे सखी! रुक देख उधर
कोई जाता है वेग किधर
छोटा-सा तिनका लगता है गया बिफर
हो विलग पहुँचा अपनी टहनी से ऊपर
जा पूछो क्यों है अब इतना अधर
आओ मेघा से पूछें
क्यों भीगा है उसका तन
क्या किसी तरंग ने फिर से
दो पाट किया है उसका मन
यह अश्रु है या हर्ष बूंद
जो बरसा धरा पर ऑंख मूंद
नहीं-नहीं, तो चल फिर नभ से मिल
जहाँ करते अगिनत तारे झिलमिल
उस दुनिया में हम भी हों शामिल
फिर देखें धरा को हो कर निश्चल
वो ख़ुद भी है प्यासी अविरल
पाने को नभ का अपना-सा ऑंचल
हाँ, नभ का छोटा-सा ऑंचल
~ आनन्द प्रकाश माहेश्वरी
Jul 12 , 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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