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Wednesday, November 30, 2016

नींद सुख की फिर हमें सोने न देगा












नींद सुख की
फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल।

छू लिए भीगे कमल-
भीगी ॠचाएँ
मन हुए गीले-
बहीं गीली हवाएँ
बहुत सम्भव है डुबो दे
सृष्टि सारी
दृष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल।

हिमशिखर, सागर, नदी-
झीलें, सरोवर
ओस, आँसू, मेघ, मधु-
श्रम-बिंदु, निर्झर
रूप धर अनगिन कथा
कहता दुखों की
जोगियों-सा घूमता-फिरता हुआ जल।

लाख बाँहों में कसें
अब ये शिलाएँ
लाख आमंत्रित करें
गिरि-कंदराएँ
अब समंदर तक
पहुँचकर ही रुकेगा
पर्वतों से टूटकर गिरता हुआ जल।

नींद सुख की
फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल।

~ किशन सरोज

  Nov 28, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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