पहले मन में पीड़ा जागी
फिर भाव जगे मन-आंगन में
जब आंगन छोटा लगा उसे
कुछ ऐसे सँवर गई पीड़ा
क़ागज़ पर उतर गई पीड़ा।
जाने-पहचाने चेहरों ने
जब बिना दोष उजियारों का
रिश्ता अंधियारों से जोड़ा
जब क़समें खाने वालों ने
अपना बतलाने वालों ने
दिल का दर्पण पल-पल तोड़ा
टूटे दिल को समझाने को
मुश्क़िल में साथ निभाने को
और छोड़ के सारे ज़माने को
हर हद से गुज़र गई पीड़ा।
ये चांद-सितारे और अम्बर
पहले अपने-से लगे मगर
फिर धीरे-धीरे पहचाने
ये धन-वैभव, ये कीर्ति-शिखर
पहले अपने-से लगे मगर
फिर ये भी निकले बेगाने
फिर मन का सूनापन हरने
और सारा खालीपन भरने
ममतामई आँचल को लेकर
अन्तस् में ठहर गई पीड़ा
काग़ज़ पर उतर गई पीड़ा।
कुछ ख़्वाब पले जब आँखों में
बेगानों तक का प्यार मिला
यूँ लगा कि ये संसार मिला
जब आँसू छ्लके आँखों से
अपनों तक से प्रतिकार मिला
चुप रहने का अधिकार मिला
फिर ख़ुद में इक विश्वास मिला
कुछ होने का अहसास मिला
फिर एक खुला आकाश मिला
तारों-सी बिखर गई पीड़ा।
~ दिनेश रघुवंशी
Nov 30, 2016| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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