सारी रात जागकर मन्दिर
कंचन को तन रहा बेचता
मैं जब पहुँचा दर्शन करने
तब दरवाज़े बन्द हो गए
छल को मिली अटारी सुख की
मन को मिला दर्द का आंगन
नवयुग के लोभी पंचों ने
ऐसा ही कुछ किया विभाजन
शब्दों में अभिव्यक्ति देह की
सुनती रही शौक़ से दुनिया
मेरी पीड़ा अगर गा उठे
दूषित सारे छन्द हो गए
इन वाचाल देवताओं पर
देने को केवल शरीर है
सोना ही इनका गुलाल है
लालच ही इनका अबीर है
चांदी के तारों बिन मोहक
बनता नहीं ब्याह का कंगन
कल्पित किंवदंतियों जैसे
मन-मन के संबंध हो गए
जीवन का परिवार घट रहा
और मरण का वंश बढ़ रहा
बैठा कलाकार गलियों में
अपने तन की भूख गड़ रहा
निष्ठा की नीलामी में तो
देती है सहयोग सभ्यता
मन अर्पित करना चाहा तो
जीवित सौ प्रतिबंध हो गए
~ रामावतार त्यागी
मन को मिला दर्द का आंगन
नवयुग के लोभी पंचों ने
ऐसा ही कुछ किया विभाजन
शब्दों में अभिव्यक्ति देह की
सुनती रही शौक़ से दुनिया
मेरी पीड़ा अगर गा उठे
दूषित सारे छन्द हो गए
इन वाचाल देवताओं पर
देने को केवल शरीर है
सोना ही इनका गुलाल है
लालच ही इनका अबीर है
चांदी के तारों बिन मोहक
बनता नहीं ब्याह का कंगन
कल्पित किंवदंतियों जैसे
मन-मन के संबंध हो गए
जीवन का परिवार घट रहा
और मरण का वंश बढ़ रहा
बैठा कलाकार गलियों में
अपने तन की भूख गड़ रहा
निष्ठा की नीलामी में तो
देती है सहयोग सभ्यता
मन अर्पित करना चाहा तो
जीवित सौ प्रतिबंध हो गए
~ रामावतार त्यागी
Nov 22, 2016| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment