क्यों वह प्रिय आता पार नहीं।
शशि के दर्पण देख देख,
मैंने सुलझाये तिमिर-केश,
गूँथे चुन तारक-पारिजात
अवगुण्ठन कर किरणें अशेष।
क्यों आज रिझा पाया उसको,
मेरा अभिनव श्रृंगार नहीं?
स्मित से कर फीके अधर अरुण
गति के जावक से चरण लाल,
स्वप्नों से गीली पलक आँज
सीमन्त तजा ली अश्रु-माल।
स्पन्दन मिस प्रतिपल भेज रही,
क्या युग युग से मनुहार नहीं?
मैं आज चुपा आई चातक
मैं आज सुला आई कोकिल,
कण्टकित मौलश्री हरसिंगार,
रोके हैं अपने शिथिल।
सोया समीर नीरव जग पर,
स्मृतियों का भी मृदु भार नहीं!
रूँधे हैं, सिहरा सा दिगन्त
नत पाटलदल से मृदु बादल,
उस पार रुका आलोक-यान
इस पार प्राण का कोलाहल।
बेसुध निद्रा है आज बुने-
जाते श्वासों के तार नहीं।
दिन-रात पथिक थक गए लौट
फिर गए मना निमिष हार,
पाथेय मुझे सुधि मधुर एक
है विरह पंथ सूना अपार।
फिर कौन कह रहा है सूना,
अब तक मेरा अभिसार नहीं?
~ महादेवी वर्मा
May 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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