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Wednesday, June 21, 2017

कभी मु़ड़ के फिर इसी राह पर


कभी मु़ड़ के फिर इसी राह पर न तो आए तुम न तो आए हम
कभी फ़ासलों को समेट कर न तो आए तुम न तो आए हम

जो तुम्हें है अपनी अना पसंद तो मुझे भी शर्त का पास है
ये ज़िदों के सिलसिले तोड़ कर न तो आए तुम न तो आए हम

इन्हीं चाहतों में बँधे हुए अभी तुम भी हो अभी हम भी हैं
है कशिश दिलों में बहुत मगर न तो आए तुम न तो आए हम

शब-ए-वस्ल भी शब-ए-हिज्र है शब-ए-हिज्र अब तो है मुस्तक़िल
यही सोचने में हुई सहर न तो आए तुम न तो आए हम

वो झरोके पर्दों में बंद हैं वो तमाम गलियाँ उदास हैं
कभी ख़्वाब में सर-ए-रह-गुज़र न तो आए तुम न तो आए हम

इसी शहर की इसी राह पर थे हमारे घर भी क़रीब तर
यूँही घूमते रहे उम्र भर न तो आए तुम न तो आए हम

कभी इत्तिफ़ाक़ से मिल गए किसी शहर के किसी मोड़ पर
तो ये कह उठेगी नज़र नज़र क्यूँ न आए तुम क्यूँ न आए हम

~ इन्दिरा वर्मा


  Jun 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh



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