सुनो ! सुनो !
यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी
जो मेरे गाँव को जाती थी।
नीम की निबोलियाँ उछालती,
आम के टिकोरे झोरती,
महुआ, इमली और जामुन बीनती
जो तेरी इस पक्की सड़क पर घरघराती
मोटरों और ट्रकों को अँगूठा दिखाती थी,
उलझे धूल भरे केश खोले
तेज धार सरपत की कतारों के बीच
घूमती थी, कतराती थी, खिलखिलाती थी।
टीलों पर चढ़ती थी
नदियों में उतरती थी
झाऊ की पट्टियों में खो जाती थी,
खेतों को काटती थी
पुरवे बाँटती थी
हरी–धकी अमराई में सो जाती थी।
सुनो ! सुनो !
यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी
जो मेरे गाँव को जाती थी।
गुदना गुदाए, स्वस्थ मांसल पिंडलियाँ थिरकाती
ढोल, मादल, बाँसुरी पर नाचती थी,
पलक झुका गीले केश फैलाए,
रामायण की कथा बाँचती थी,
ठाकुरद्वारे में कीर्तन करती थी,
आरती–सी दिपती थी
चंदन–सी जुड़ती थी
प्रसाद–सी मिलती थी
चरणामृत–सी व्याकुल होंठों से लगकर
रग–रग में व्याप जाती थी।
सुनो ! सुनो !
यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी
जो मेरे गाँव को जाती थी।
अब वह कहाँ गयी।
किसी ने कहा उसे पक्की सड़क में बदल दो?
उसकी छाती बेलौस कर दो
स्याह कर दो यह नैसर्गिक छटा
विदेशी तारकोल से।
किसी ने कहा कि उसके हृदय पर
चोर बाज़ार का सामान ले जाने वाले
भारी भारी ट्रक चलें,
उसके मस्तिष्क में
चमचमाती मोटरों, स्कूटरों की भाग दौड़ हो
किसने कहा
कि वह पाकेटमार–सी मिले
दुर्घटना–सी याद रहे
तीखे विष–सी
ओठों से लगते ही रग–रग में फैल जाए।
सुनो ! सुनो !
यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी
जो मेरे गाँव को जाती थी।
आह! वह कहाँ गयी।
∼ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
Jun 4, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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