श्रृंखला वह जो पवन में, वह्नि में, तूफान में है
और चल उत्ताल सागर में ।
जान सकता हूँ अगर साहस करूं
चेतना का रुप वह जिसमें
वृक्ष से झर का मही पर पत्र गिरते हैं ।
वायु में सुराख है,
सर्वत्र ही कब्रें खुली हैं
हम मनुष्यों को गरसने के लिए ।
सातवें के बाद
और पहले रंग के पहले
अंधेरा ही अंधेरा है ।
शब्द के उपरान्त केवल स्तब्धता है ।
गूँज उसकी जतुक सुनते हैं
कि सुनते मीन सागर के हदय के ।
इन्द्रियों को स्पर्श-रेखा के परे
घूमते हैं चक्र अणुओं, तारकों, परमाणुओं के,
जिन्दगी जिनसे बुनी जाती।
जिन अगम गहराइयों से भागते हैं,
छोड़ कर उनको कहीं आश्रय नहीं मिलता ।
गूँजती शंका जभी जीवन-गुफा में,
गूँज उठता है अमरता के परे का व्योम भी ।
और निद्रा में
अमित अव्यक्त भावों के
सहस्रों स्वप्न चलते हैं ।
ये सहस्रों स्वप्न जो अपने नहीं हैं ।
~ रामधारी सिंह 'दिनकर'
May 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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