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Thursday, November 17, 2016

जाग बेसुध जाग!



जाग बेसुध जाग!
अश्रुकण से उर सजाया त्याग हीरक हार
भीख दुख की मांगने फिर जो गया, प्रतिद्वार
शूल जिसने फूल छू चंदन किया, संताप
सुन जगाती है उसी सिध्दार्थ की पदचाप
करुणा के दुलारे जाग!

शंख में ले नाश मुरली में छिपा वरदान
दृष्टि में जीवन अधर में सृष्टि ले छविमान
आ रचा जिसने विपिन में प्यार का संसार
गूंजती प्रतिध्वनि उसी की फिर क्षितिज के पार
वृंदा विपिन वाले जाग!
*विपिन=जंगल, बियावान

रात के पथहीन तम में मधुर जिसके श्वास
फैले भरते लघुकणों में भी असीम सुवास
कंटकों की सेज जिसकी ऑंसुओं का ताज
सुभग, हँस उठ, उस प्रफुल्ल गुलाब ही सा आज
बीती रजनी प्यारे जाग!

~ महादेवी वर्मा


  Nov 17, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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