चांद की बातें करते हो, धरती पर अपना घर ही नहीं
रोज़ बनाते ताजमहल, संगमरमर क्या कंकर ही नहीं
सूखी नदिया नाव लिए तुम बहते हो यूँ ही
क्या लिखते रहते हो यूँ ही
आपके दीपक, शमा, चिराग़ में आग नहीं, पर जलते हैं
अंधियारे की बाती, सूरज से सुलगाने चलते हैं
आँच नहीं है चूल्हे में, पर काँख में सूरज दाबे हो
सीले, घुटन भरे कमरे में, वेग पवन का थामे हो
ठंडी-मस्त हवा हो तो भी दहते हो यूँ ही
चंचल-चंद्रमुखी चावल से कंकर चुनते नहीं लिखी
परी को नल की लम्बी कतारों में स्वेटर बुनते नहीं लिखी
पाँव धँसे दलदल में पतंग सतरंगी उड़ाते फिरते हो
दिन-दिन झड़ते बाल बिचारे ज़ुल्फें गाते फिरते हो
खड़ा हिमालय बातों का कर ढहते हो यूँ ही
ठोस क़दम की बातें करते, कठिनाई से बचते हो
बिना किए ही मेहनत के, तुम मेहनत के छंद रचते हो
सारी दुनिया से रूठे हो, कारण क्या कुछ पता नहीं
भीतर से बिखरे-टूटे हो, कारण क्या कुछ पता नहीं
प्रश्न बड़े हैं उत्तर जिनके कहते हो यूँ ही
कभी कल्पना-लोक से निकलो, सच से दो-दो हाथ करो
कीचड़ भरी गली में घूमो, फिर सावन की बात करो
झाँईं पड़े हुए गालों को, गाल गुलाबी लिख डाला
पत्र कोई आया ही नहीं, पर पत्र जवाबी लिख डाला
छोटे दुख भी भारी कर के सहते हो यूँ ही
~ रमेश शर्मा
Nov 2, 2016| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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