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Sunday, November 6, 2016

रात चांदनी-सी तुम आईं!



प्राण लगा चंदा की बिंदी और तारों की वरमाला ले
रात चांदनी-सी तुम आईं!

मन होता अपनी कमज़ोरी ज़ाहिर कर दूँ
अपने पापों की सब सूची सम्मुख धर दूँ
लेकिन तेरे स्वप्न-जाल की डोर न टूटे
सुख का यह साम्राज्य न इतनी जल्दी छूटे
दुख कह देने का सुख पाऊँ या सुख हरने का दुख पाऊँ
सोच-सोच चेतना गँवाई!

नए-नए नित स्वप्न जुगाना तो अपने में बात बड़ी है
इन सपनों के ऊपर ही तो संसृति की मीनार खड़ी है
लेकिन महल रहे जो कल तक और अब गिरकर टूट चुके हैं
याद कभी उनकी कर लेना पाप नहीं जो छूट चुके हैं
मैंने मुड़कर देखा ही है अपने पिछले जीवन-पथ को
तुम क्यों पगली-सी भरमाई!

भला-बुरा जैसा जो कुछ कर कह आए हम
सुख-दुख हर्ष-विषाद सभी जो सह आए हम
भला यही अब उसको भूलें ख़ुद को जानें
आगे जो कुछ करना है उसको पहचानें
बहुत बार सोचा था मन ने, लेकिन काँप गया यह उस दिन
जब उदासियाँ तुम पर छाईं!

~ भीमसेन त्यागी


  Nov 6, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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