निश्वासों सा नीड़ निशा का
बन जाता जब शयनागार,
लुट जाते अभिराम छिन्न
मुक्तावलियों के वंदनवार
तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार,
आँसू से लिख जाता है ‘कितना अस्थिर है संसार’!
हँस देता जब प्रात, सुनहरे
अंचल में बिखरा रोली,
लहरों की बिछलन पर जब
मचली पड़तीं किरणें भोली
तब कलियाँ चुपचाप उठा कर पल्लव के घूँघट सुकुमार,
छलकी पलकों से कहतीं है ‘कितना मादक है संसार’!
देकर सौरभ दान पवन से
कहते जब मुरझाए फूल,
‘जिसके पथ में बिछे वही
क्यों भरता इन आँखों में धूल’
‘अब इनमें क्या सार’ मधुर जब गाती भौंरों की गुंजार,
मर्मर का रोदन कहता है ‘कितना निष्ठुर है संसार’!
स्वर्ण वर्ण से दिन लिख जाता
जब अपने जीवन की हार
गोधूली नभ के आँगन में
देती अगणित दीपक बार
हँस कर तब उस पार तिमिर का कहता बढ़ बढ़ पारावार
‘बीते युग पर बन हुआ है 'अब तक मतवाला संसार’!
स्वप्नलोक के फूलों से कर
अपने जीवन का निर्माण,
‘अमर हमारा राज्य’ सोचते
हैं जब मेरे पागल प्राण
आकर तब अज्ञात देश से जाने किसकी मृदु झंकार,
गा जाती है करुण स्वरों में ‘कितना पागल है संसार’!
~ महादेवी वर्मा
Jan 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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