अब काया का मोह नहीं, यह चाहे जिस वन में भटके
पापों के व्यापारी को जब, मन का कंगन बेच दिया
अनचाहे सुख का जीवन, कितनी हसीन लाचारी था
क्या कह दूँ, किससे कह दूँ, यह सागर कितना खारी था
मत आँजो तुम आँख, मांग में मत सुहाग सिंदूर भरो
निर्जनता के बदले बाँहों का मृदु बंधन बेच दिया
अपमानों का गँदला पानी पी जीवन की बेल बढ़ी
और इसे था गर्व कि कितने-कितने ऊँचे शिखर चढ़ी
लेकिन क्षमा करो, मुझको मुर्झाने दो, मिट जाने दो
दुख की पूंजी के बदले में सुख का क्रंदन बेच दिया
क्षण-क्षण पल-पल पर कड़वी दुविधा ने डेरा डाला था
मैं मकड़ी था और मुझे घेरे ख़ुद मेरा जाला था
ऐसी हूक उठी मन में, रग-रग में ऐसा दर्द जगा
मैंने अभिशापों के बदले युग का वंदन बेच दिया
जिसको जीवन कहा, मौत के घर की वह पगडंडी थी
आईं सांसें चार एक से एक अधिक ही ठंडी थी
और आज जब छोर पाँव के नीचे सोच रहा हूँ मैं
अब चलना कैसा जब विष के बदले चंदन बेच दिया
~ भीमसेन त्यागी
Jan 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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