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Saturday, January 28, 2017

टालने से वक़्त क्या टलता रहा

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टालने से वक़्त क्या टलता रहा
आस्तीं में साँप इक पलता रहा

मौत भी लेती रही अपना ख़िराज
कारोबार-ए-ज़ीस्त भी चलता रहा
*ख़िराज=एक तरह का टैक्स; ज़ीस्त=ज़िंदगी

कोई तो साँचा कभी आएगा रास
मैं हर इक साँचे में यूँ ढलता रहा

शहर के सारे महल महफ़ूज़ थे
तेरा मेरा आशियाँ जलता रहा
*महफ़ूज़=सुरक्षित; आशियाँ=घरौंदा

ज़िंदगी में और सब कुछ था हसीं
अपना होना ही मुझे खलता रहा

बुझ गए तहज़ीब-ए-नौ के सब चराग़
एक मिट्टी का दिया जलता रहा
*तहज़ीब-ए-नौ=नयी सभ्यता

आरज़ूएँ ख़ाक में मिलती रहीं
नख़्ल-ए-उल्फ़त फूलता फलता रहा
*नख़्ल-ए-उल्फ़त=प्यार का मरु उद्यान

बन के सोने का हिरन तेरा वजूद
मेरे महसूसात को छलता रहा

रात भर सूनी रही बिरहन की सेज
और आँगन में दिया जलता रहा

ज़िक्र-ए-हक़ भी था बजा 'साहिर' मगर
मय-कशी का दौर भी चलता रहा
*ज़िक्र-ए-हक़=सच्चाई; मय-कशी=शराब पीने का

~ साहिर होशियारपुरी


  Jan 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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