एक चाय की चुस्की,
एक कहकहा,
अपना तो इतना सामान ही रहा ।
चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के,
पग-पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के,
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा।
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा।
एक अदद गंध
एक टेक गीत की,
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की,
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा।
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा।
एक क़सम जीने की
ढेर उलझनें,
दोनों ग़र नहीं रहे
बात क्या बने,
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा।
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा।
~ उमाकांत मालवीय
Jan 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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